गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमास्पद जार पुरूष नहीं है, स्वयं ‘विश्वात्मा भगवान् हैं, -पति-पुत्रों के और अपने सबके आत्मा परमात्मा हैं। इसीलिये गोपी-प्रेम में परकीयाभाव माना जाता है। यद्यपि स्वकीया पतिव्रता स्त्री अपना नाम, गोत्र, जीवन, धन, धर्म सभी पति के अर्पण कर प्रत्येक चेष्टा पति के लिये ही करती है, तथापि परकीयाभाव में तीन बाते विशेष होती हैं। प्रियतम का निरन्तर चिन्तन, उससे मिलने की अतृप्त उत्कण्ठा और प्रियतम में दोष दृष्टि का सर्वथा अभाव। स्वकीया में सदा एक ही घर में एक साथ निवास होने के कारण ये तीनों ही बातें नहीं होतीं। गोपियाँ भगवान् को नित्य देखती थीं, परंतु परकीयाभाव की प्रधानता से क्षणभर का वियोग भी उनके लिये असह्य हो जाता था, आँखों पर पलक न बनाने के लिये वे विधता को कोसती थीं, क्योंकि पलक न होते तो आँखें सदा खुली ही रहतीं। गोपियाँ कहती हैं- अटति यद् भवानह्नि काननं
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