गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 17

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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प्रेमास्पद जार पुरूष नहीं है, स्वयं ‘विश्वात्मा भगवान् हैं, -पति-पुत्रों के और अपने सबके आत्मा परमात्मा हैं। इसीलिये गोपी-प्रेम में परकीयाभाव माना जाता है। यद्यपि स्वकीया पतिव्रता स्त्री अपना नाम, गोत्र, जीवन, धन, धर्म सभी पति के अर्पण कर प्रत्येक चेष्टा पति के लिये ही करती है, तथापि परकीयाभाव में तीन बाते विशेष होती हैं। प्रियतम का निरन्तर चिन्तन, उससे मिलने की अतृप्त उत्कण्ठा और प्रियतम में दोष दृष्टि का सर्वथा अभाव। स्वकीया में सदा एक ही घर में एक साथ निवास होने के कारण ये तीनों ही बातें नहीं होतीं। गोपियाँ भगवान् को नित्य देखती थीं, परंतु परकीयाभाव की प्रधानता से क्षणभर का वियोग भी उनके लिये असह्य हो जाता था, आँखों पर पलक न बनाने के लिये वे विधता को कोसती थीं, क्योंकि पलक न होते तो आँखें सदा खुली ही रहतीं। गोपियाँ कहती हैं-

अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्।।[1]

‘जब आप दिन के समय वन में विचरते हैं तब आपको न देख सकने के कारण हमारे लिये एक-एक पल युग के समान बीतता है। फिर संध्या के समय जब वन से लौटते समय हम घुँघराली अलकावलियों से युक्त आपके श्रीमुख को देखती हैं, तब हमें आँखों में पलक बनाने वाले ब्रह्मा मूर्ख प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात् एक पलक भी आपको देखे बिना हमें कल नहीं पड़ती।‘

भगवान् का नित्य चिन्तन करना, पलभर के आदर्शन में भी महान् विरह- वेदना का अनुभव करना और सर्वतोभाव से दोष- दर्शनरहित होकर आत्मसमर्पण कर चुकना गोपियों का स्वभाव थे। इसी से उस प्रियतम सेवा के सामने किसी बात को कुछ भी नहीं समझती थीं। लोक-वेद सबकी मर्यादा को छोड़कर वे कृष्णानुरागिणी बन गयी थीं। भोग और मोक्ष-दोनों ही उनके लिये सर्वथा तुच्छ और त्याज्य थे। भगवान् ने स्वयं कहा है-



त मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे तयक्तदैहिकाः।

ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्भ्यहम्।।[2]

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  1. (श्रीमद्भा0 10।31।15)
  2. (श्रीमद्भा0 10।46।4)

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