हरिव्यासदेव

हरिव्यासदेव 'निम्बार्क सम्प्रदाय' के परम वैष्णव आचार्य तथा प्रसिद्ध संत थे। ये श्रीभट्ट जी के शिष्य बन गये थे। ये ही सर्वप्रथम उत्तर भारतीय सम्प्रदायाचार्य हैं। इनसे पहले के सभी आचार्य शायद दाक्षिणात्य थे। स्वामी हरिव्यासदेव जी इस सम्प्रदाय में उस शाखा के प्रवर्तक हैं, जिसे 'रसिक सम्प्रदाय' कहते हैं।

जन्म तथा दीक्षा

हरिव्यासदेव जी का जन्म गौड़ ब्राह्मण कुल में हुआ था। आपने श्रीभट्ट जी से दीक्षा ली थी। पहली बार जब आप दीक्षा के लिये श्रीगुरुचरणों में गये, उस समय श्रीभट्ट गोवर्धन में वास कर रहे थे और युगलसरकार श्रीप्रिया-प्रीतम को गोद में बिठाकर लाड़ लड़ा रहे थे। श्रीभट्ट ने पूछा- "हरिव्यास! हमारे अंग में कौन विराजते हैं।" हरिव्यास जी बोले- "महाराज! कोई नहीं।" इस पर श्रीभट्ट ने कहा- "अभी तुम शिष्य होने योग्य नहीं हो। अभी बारह वर्ष तक श्री गोवर्धन की परिक्रमा करो।" गुरु-आज्ञा प्राप्त कर हरिव्यासदेव ने बारह वर्ष तक परिक्रमा की। तत्पश्चात फिर गुरु-समीप आये। गुरुदेव ने फिर वही प्रश्न किया और इस पर भी उन्होंने वही पुराना उत्तर दिया। पुन: बारह वर्ष श्री गोवर्धन की परिक्रमा करने की आज्ञा हुई। आज्ञा शिरोधार्य कर हरिव्यासदेव ने पुन: बारह वर्ष तक परिक्रमा की। तदुपरान्त गुरु-आश्रम में आये और आचार्य की गोद में प्रिया-प्रियतम को देखकर कृतकृत्य हो चरणों में लोट गये। अब इन्हें योग्य जान आचार्य ने दीक्षा दी।

'भक्तमाल' का प्रसंग

'भक्तमाल' में हरिव्यासदेव के सम्बन्ध में एक बड़े प्रभावशाली वृत्तांत का वर्णन है। ये अपने सैकड़ों विद्वान शिष्यों को साथ लेकर भगवद-भक्ति रूप अलौकिक रस की वर्षा करते हुए पंजाब प्रान्त के गढ़यावल नामक ग्राम पहुँचे। गांव के बाहर एक उपवन में एक देवी का मठ था। वहाँ के राजा की ओर से सैकड़ों बकरे बलिदान के लिये वहाँ बंधे थे। निरीह पशुओं की यह दयनीय दशा देखकर स्वामी जी की आंखों में आंसू आ गये। सब शिष्यों सहित वे वहाँ से चलते बने। रात को राजा स्वप्न में देखता है कि देवी बड़ा ही भीषण रूप धारण कर उसके सामने खड़ी हैं और डांटकर कह रही हैं-

"दुष्ट! तूने मेरे नाम पर जो क्रूर कर्म जारी कर रखा है, उससे आज एक भगवद्भक्त का चित्त दु:खी हुआ है। भगवद्भक्त के इस क्षोभ से मेरा शरीर जला-सा जा रहा है। अत: जाकर उन सब बकरों को खोल दे और फिर कभी ऐसा कर्म न करने की प्रतिज्ञा कर। साथ ही स्वामी जी से जाकर क्षमा मांग और उनसे दीक्षा ले। मैं भी वैष्णवी दीक्षा लूँगी।"

राजा घबराकर उठा और तुरंत स्वामी जी के पास पहुँच चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। स्वामी हरिव्यासदेव ने उसे आशीर्वाद दिया और सबेरे उसे तथा देवी जी को वैष्णवी दीक्षा दी। कहा जाता है, उस स्थान में अब भी वैष्णवी देवी का सुप्रसिद्ध मन्दिर है। वहाँ अब तक जीव-बलिदान नहीं होता। फूल-बताशे ही चढ़ते हैं।

भाष्य रचना

इसके बाद हरिव्यासदेव वृन्दावन आये और गुरुदेव श्रीभट्ट जी की आज्ञानुसार 'युगलशतक' पर संस्कृत में भाष्य लिखा। स्वामी जी ने संस्कृंत में कई मूल ग्रन्थ भी लिखे। इनमें 'प्रसन्न-भाष्य' मुख्य है। 'दशश्लोकी' के अन्यान्य भाष्यों से इसमें विशेषता यह है कि वेद के तत्त्वनिरूपण के अतिरिक्त‍ उपासना पर काफ़ी जोर दिया गया है। ब्रजभाषा में 'युगलशतक' नामक पुस्तक में आपके सौ दोहे और सौ गेय पद संग्रहीत हैं, जो मिठास में अपना जोड़ नहीं रखते।

'रसिक सम्प्रदाय' के संस्थापक

ऊपर दोहे में जो बात संक्षेप में की है, वही नीचे पद में विस्तार से कही गयी है। इस सम्प्रदाय में 'युगलशतक' पहली ही हिन्दी रचना है। शायद इसी से इसे "आदिवाणी" कहते हैं, और ये ही सर्वप्रथम उत्तर भारतीय सम्प्रदायाचार्य हैं। इनसे पहले के सभी आचार्य शायद दाक्षिणात्य थे। स्वामी हरिव्यासदेव जी इस सम्प्रदाय में उस शाखा के प्रवर्तक हैं, जिसे 'रसिक सम्प्रदाय' कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के श्रृंगारी रूप की उपासना ही इनका सर्वस्व है। श्री हरिव्यारसदेव जी का इतना प्रभाव हुआ कि 'निम्बार्क सम्प्रदाय' की इस शाखा के संतों को तब से लोग 'हरिव्यासी' ही कहने लगे। वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों में इस सम्प्रदाय के संत अब भी 'हरिव्यासी' ही कहलाते हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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