श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 17-36

नवम स्कन्ध: तृतीयोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद


उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये।

कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है। सुकन्या ने उनके चरणों की वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले- ‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनि को धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है। तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलंक लगाने वाला है। अरे राम-राम! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों के वंश को घोर नरक में ले जा रही है’।

राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर पवित्र मुस्कान वाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा- ‘पिताजी! ये आपके जमाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’। इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया।

महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया। इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया। तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वैद्य होने के कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था।

परीक्षित! शर्याति के तीन पुत्र थे- उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त से रेवत हुए। महाराज! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे कुकुद्मी। कुकुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये। उत्सव के अन्त में ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्मा जी ने हँसकर उनसे कहा- ‘महाराज! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते। इस बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायण के अंशावतार महाबली बलदेव जी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। राजन्! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियों के जीवन सर्वस्व भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।’

राजा कुकुद्मी ने ब्रह्मा जी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे। राजा कुकुद्मी ने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परमबलशाली बलराम जी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान् नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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