चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 98-114 का हिन्दी अनुवाद
अंगूठे का अन्तराल (मूल स्थान) ब्राह्मतीर्थ कहलाता है, कनिष्ठा आदि अंगुलियों का पश्चाद्भाग (अग्रभाग) देवतीर्थ कहा जाता है। भारत! अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्य भाग को पितृतीर्थ कहते हैं। उसके द्वारा शास्त्रविधि से जल लेकर सदा पितृकार्य करना चाहिये। अपनी भलाई चाहने वाले पुरुष को दूसरों की निंदा तथा अप्रिय वचन मुंह से नहीं निकालने चाहिये और किसी को क्रोध भी नहीं दिलाना चाहिये। पतित मनुष्यों के साथ वार्तालाप की इच्छा न करे। उनका दर्शन भी त्याग दे और उनके सम्पर्क में कभी न जाये। ऐसा करने से मनुष्य बड़ी आयु पाता है। दिन में कभी मैथुन न करे। कुंमारी कन्या और कुल्टा के साथ कभी समागम न करे। अपनी पत्नि भी जब तक ऋतुस्नाता न हो, तब तक उसके साथ समागम न करे। इससे मनुष्य को बड़ी आयु प्राप्त होती है। कार्य उपस्थित होने पर अपने-अपने तीर्थ में आचमन करके तीन बार जल पीये और दो बार ओठों को पोंछ ले- ऐसा करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। पहले नेत्र आदि इन्द्रियों का एक बार स्पर्श करके तीन बार अपने ऊपर जल छिड़के, इसके बाद वेदोक्त विधि के अनुसार देवयज्ञ और पितृयज्ञ करे। कुरुनन्दन! अब ब्राह्मण के लिये भोजन के आदि और अन्त में जो पवित्र एवं हितकारक शुद्धि का विधान है, उसे बता रहा हूँ, सुनो। ब्राह्मण को प्रत्येक शुद्धि के कार्य में ब्रह्मतीर्थ से आचमन करना चाहिये। थूकने और छींकने के बाद जल का स्पर्श (आचमन) करने से वह शुद्ध होता है। बूढ़े कुटुम्बी, दरिद्र मित्र और कुलीन पंडित यदि निर्धन हो तो उनकी यथाशक्ति रक्षा करनी चाहिये। उन्हें अपने घर पर ठहराना चाहिये। इससे धन और आयु की वृद्धि होती है। परेवा, तोता, मैना आदि पक्षियों का घर में रहना अभ्युदयकारी और मंगलमय है। ये तैलपायिक पक्षियों की भाँति अमंगल करने वाले नहीं होते। देवता की प्रतिमा, दर्पण, चंदन, फूल की लता, शुद्ध जल, सोना और चांदी- इन सब वस्तुओं का घर में रहना मंगलकारक है। उद्दीपक, गीध, कपोत (जंगली कबूतर) और भ्रमर नामक पक्षी कभी घर में आ जायें तो सदा उसकी शांति ही करानी चाहिये; क्योंकि ये अमंगलकारी होते हैं। महात्माओं की निंदा भी मनुष्य का अकल्याण करने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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