भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्री बलराम विवाह
सबसे बलवान कौन? पृथ्वी पर तो बल में तारतम्य रहता ही है। देव लोक में इंद्र, वायु आदि देवता भी अपने को सबसे अधिक बलवान कैसे कह देते। अंत में निर्णय हुआ–सबसे बलवान भगवान अनन्त, जिनके सहस्र फणों में से एक फण पर संपूर्ण धरा मंडल नन्हीं सर्षप के समान प्रलय पर्यंत धरा रहता है। भगवान अनन्त तक तो मनु पहुँच नहीं सकते थे। देवताओं की भी पहुँच नहीं वहाँ तक। उनकी कृपा हो तो वे किसी को दर्शन दें। उनके साथ मनु पुत्री का कैसे विवाह कर देते? किंतु ज्योतिष्मती निराश नहीं हुई। उसने तप करना प्रारंभ किया–मेरे वही स्वामी हैं। मैं तपस्या करके उन्हें प्राप्त करूंगी। इंद्र, यम, कुबेर, अग्नि, वरुण, सूर्य, शशि, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि अर्थात सब ग्रह और पांच लोकपाल उस तपस्विनी के पास पहुँचे। कोई छल नहीं, सब अपने स्वरूप में ही उसके तपोवन में गए। प्रत्येक ने अपने पराक्रम का स्वयं वर्णन किया और प्रार्थना की– देवि! आप पति रूप से हमें स्वीकार कर लो। तुम्हारा इतना साहस कि मेरे पाणि की प्रार्थना करने आ गए। ज्योतिष्मती त्रिलोक सुंदरी थी तो अकल्प्य तेजस्विनी भी थी। उसने प्रार्थना करने आए देवता को अस्वीकार ही नहीं किया, प्रत्येक देवता को कोई न कोई शाप दे दिया। देवराज इंद्र कुपित हुए। उन्होंने भी शाप दिया- उग्रतेजा! तुमने देवताओं को अकारण ही शाप दिया है। कुमारी कन्या से विवाह की प्रार्थना करना कोई अपराध नहीं है। तुम अस्वीकार कर देतीं–कोई छ्ल या बल का प्रयोग तो नहीं कर रहा था। तुमने निरपराधों को शाप दिया है, अत: अनन्त पराक्रम भगवान अनन्त को पति रूप में प्राप्त करके भी तुम्हें पुत्रोत्सव का आनंद नहीं प्राप्त होगा। लेकिन भगवान अनन्त की अर्धांगिनी को शाप देकर उस पर स्थिर रहना बहुत कठिन था। देवराज को स्वयं कहना पड़ा–यदि आपके स्वामी देवताओं का संकट हरण करेंगे तो यह शाप निष्प्रभाव हो जाएगा। शाप अन्तत: प्रभावहीन हो गया। रेवती जी के दो पुत्र हुए द्वारिका में– निशठ और उल्मुक। धन्यवाद! मैं उन श्रीचरणों में अनन्य प्रेम चाहती हूँ। तेजस्विनी ज्योतिष्मती ने इंद्र के शाप की उपेक्षा कर दी– मेरे प्रेम में दूसरा कोई–कोई संतान भी भाग लेने आवे, यह मुझे नहीं चाहिए। ज्योतिष्मती का तप कठिन था। उसका तप: तेज बढ़ता चला गया। भगवान ब्रह्मा विवश हुए–उनकी सृष्टि ही समाप्त हो जाए यदि कोई सत्त्वगुण को सीमातीत बढ़ाता चला जाए। मनु की कन्या–वह पार्थिव वपु तो नहीं थी कि उसका शरीर कष्ट सहन की कोई सीमा पाकर नष्ट हो जाए। हंस वाहन लोकस्रष्टा प्रकट हुए। उन्होंने अनुरोध के स्वर में कहा - पुत्री ! अब तुम इस कठिन तप का त्याग करो। वैवस्वत मन्वन्तर की अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के द्वापरांत में भगवान अनन्त धरा पर अवतीर्ण होंगे। मैं वचन देता हूँ कि वे तुम्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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