ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 54
अत्यन्त विस्तृत जलाधर (अथवा जलशय्या) पर शयन करने वाले जो महाविराट हैं, वे श्रीराधावल्ल्भ श्रीकृष्ण का सोलहवाँ अंश कहे गये हैं। उनके श्रीअंगों की कान्ति दूर्वादल के समान श्याम है। उनके मुख पर मन्द मुस्कान खेलती रहती है। उनके चार भुजाएँ हैं। वे वनमाला धारण करते हैं। श्रीमान महाविष्णु पीताम्बर से सुशोभित है। सर्वेपरि आकाश में श्रीविष्णु का नित्य वैकुण्ठधाम है, जो आत्माकाश के समान नित्य तथा चन्द्रमण्डल के तुल्य विस्तृत है। ईश्वर की इच्छा से उसका आविर्भाव हुआ है। वह अलक्ष्य तथा आश्रयरहित है। आकाश के समान अत्यंत विस्तृत तथा अमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित है। वहाँ वनमालधारी श्रीमान चतुर्भुज नारायणदेव, जो लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा तथा तुलसी के पति हैं; सुनन्द, नन्द तथा कुमुद आदि पार्षदों से घिरे हुए निवास करते हैं। सर्वेश्वर सर्वसिद्धेश्वर एवं भक्तो पर अनुग्रह करने के लिए ही दिव्य विग्रह (अथवा कृपामय शरीर) धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं- द्विभुज एवं चतुर्भुज। चतुर्भुजरूप से वे वैकुण्ठ में वास करते हैं और द्विभुजरूप से गोलोकधाम में। वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊपर गोलाकार ‘गोलोक’ धाम विद्यमान है, जो समस्त लोकों से श्रेष्ठतम है। बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित विशाल भवन उस धाम की शोभा बढ़ाते हैं। रत्नेन्द्रसार के बने हुए विभिन्न खम्भों और सीढ़ियों से वे भवन अलंकृत हैं। श्रेष्ठ मणिमय दर्पणों से जटित किवाड़ों तथा कलशों से उज्ज्वल एवं नाना प्रकार के चित्रों से विचित्र शोभा पाने वाले शिविर उस धाम की श्रीवृद्धि करते हैं। उसका विस्तार एक करोड़ योजन है तथा लंबाई उससे सौगुनी है। विरजा नदी से घिरा हुआ शतश्रृंग पर्वत उस धाम का परकोटा है। विरजा नदी की आधी लंबाई-चौड़ाई तथा शतश्रृंग पर्वत की आधी ऊँचाई वाले वृन्दावन से वह धाम सुशोभित है। वृन्दावन की अपेक्षा आधी लंबाई-चौड़ाई में निर्मित रासमण्डल गोलोकधाम का अलंकार है। उपर्युक्त नदी, पर्वत और वन आदि के मध्यभाग में मुख्य गोलोकधाम है। जैसे कमल में कर्णिका होती है, उसी प्रकार उक्त नहीं, शैल आदि के बीच में वह मनोहर धाम प्रतिष्ठित है। वहाँ रासमण्डल में गौओं, गोपों और गोपियों से घिरे हुए गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण रासेश्वरी श्रीराधा के साथ निरन्तर निवास करते हैं। उनके दो भुजाएँ हैं, वे हाथों में मुरली लिये बाल-गोपाल का रूप धारण किये रहते हैं। अग्निशुद्ध चिन्मय वस्त्र उनका परिधान है। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं। उनके सारे अंग चन्दन से चर्चित हैं। गले में रत्नों का हार शोभा देता है। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके ऊपर छत्र तना हुआ है तथा उनके प्रिय सखा ग्वालबाल श्वेत चवँर लिये सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। वस्त्रा भूषणों से विभूषित सुन्दर वेषवाली गोपियाँ माला और चन्दन के द्वारा उनका श्रृंगार करती हैं। वे मन्द-मन्द मुस्कराते रहते हैं और वे गोपियाँ कटाक्षपूर्ण चितवन से उनकी ओर निहारती रहती हैं। इस प्रकार जैसा मैंने भगवान शंकर के मुख से सुना था और आगमों में जैसा वर्णन मिलता है, तदनुसार लोकविस्तार की यथाशक्ति चर्चा की है। अब काल का मान सुनो। छः पल सोने का बना हुआ एक पात्र हो, जिसकी गहराई चार अंगुल की हो। उसमें एक-एक माशे सोने के बने हुए चार-चार अंगुल लंबे चार कीलों से छेद कर दिये जाएँ। फिर उस पात्र को जल के ऊपर रख दिया जाए। उन छिद्रों से पानी आकर जितनी देर में वह पात्र भर दे, उतने समय को एक दण्ड कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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