गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 244

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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(6) त्रिगुणमयी वेद विषय-

ब्रह्मसूत्र के “शास्त्रयोनित्वात्” वचन के अनुसर व श्रीमद्भागवत के “नारायणपरावेदा” व “ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः” लेखानुसार वेद का उद्गम ब्रह्म से है ऐसा माना जाता है। ब्रह्म द्वारा व्यक्त होने के कारण “वेद” को “श्रुति” कहते हैं। प्रारम्भावस्था में वेद” केवल एक ही था; एक ही वेद में अनेकों ऋचाएँ थीं जो “वेद-सूत्र” कहलाते थे; वेद में यज्ञ-विधि का वर्णन है; सम[1]पदावलियाँ है; तथा लोकोपकारी अनेक ही छन्द हैं। इन समस्त विषयों से सम्पन्न एक ही वेद सत्युग और त्रेतायुग तक रहा; द्वापरयुग में महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेद को चार भागों में विभक्त किया इस कारण महर्षि कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि व्यास के "पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु" यह चार शिष्य थे। महर्षि व्यास ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्यापन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।


वेद में कुल मिलाकर एक लाख मन्त्र हैं। इन एक लाख मन्त्रों में 4000 मन्त्र ज्ञानकाण्ड विषयक हैं, 16000 मन्त्र उपासना विधि के हैं, और 80000 मन्त्र कर्मकाण्ड विषयक हैं। मन्त्रों की व्याख्या करने वाले भाग को “ब्राह्मण” कहते हैं। चारों वेदों के चार ही ब्राह्मण-ग्रन्थ हैं, ऋग्वेद का “ऐतरेय”, यजुर्वेद का “शतपथ”; सामवेद का “पंचविंश” तथा अथर्ववेद का “गोपथ-ब्राह्मण”।

इन ब्राह्मण-ग्रन्थों में कर्मकाण्ड विषयक अंश “ब्राह्मण” कहलाता है; ज्ञान चर्चा विषयक अंश “आरण्यक”; उपासना विषयक अंश को उपनिषद कहते हैं। इस प्रकार वेद-मन्त्रों का और ब्राह्मण-भागों का निरुपण मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चार नामों से होने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गाने योग्य

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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