गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 41
श्रीराधा और श्रीकृष्ण का मिलन श्रीगर्गजी कहते हैं– राजन् ! संध्या के समय श्रीराधा ने नन्दनंदन श्रीकृष्ण को बुलवाया। उनका आमंत्रण पाकर नित्य एकांत स्थल में, जहाँ शीतल कदली वन था, श्रीकृष्ण वहाँ गए। कदलीवन में एक मेघ– महल बना था, जिसमें चंदन पंक का छिड़काव हुआ था। केले के पत्तों से सज्जित होने के कारण वह भवन बड़ा मनोहर लगता था। अपनी विशालता से सुशोभित उस मेघभवन में यमुना जल का स्पर्श करके बहती हुई वायु पानी के फुहारे बिखेरती रहती थी। श्रीराधिका का ऐसा सुंदर सारा मेघ मंदिर उनके विरह–दु:ख की आग से सदा भस्मीभूत हुआ–सा प्रतीत होता था। नरेश्वर ! गोलोक में प्राप्त हुए श्रीदामा के शाप से वृषभानु नंदिनी को श्रीकृष्ण विरह का दु:ख भोगना पड़ रहा था। उस दशा में भी वे वहाँ अपने शरीर की रक्षा इसलिए कर रही थीं कि किसी न किसी दिन श्रीकृष्ण यहाँ आएंगे । सखी मुख से जब यह संवाद मिला कि श्रीकृष्ण अपने विपिन में पधारे हैं, तब श्रीवृषभानु नंदिनी उन्हें लाने के लिए अपने श्रेष्ठ आसन से तत्काल उठकर खड़ी हो गईं और सहेलियों के साथ दरवाजे पर आईं। व्रजेश्वरी श्यामा ने व्रजवल्लभ श्याम सुंदर श्रीकृष्ण को उनका कुशल समाचार पूछते हुए आसन दिया और क्रमश: पाद्य, अर्ध्य आदि उपचार अर्पित किए। नरेश्वर ! परिपूर्णतमा श्रीराधा ने परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर विरह जनित दु:ख को त्याग दिया और संयोग पाकर वे हर्षोल्लास से भर गईं। उन्होंने वस्त्र, आभुषण और चंदन से अपना श्रृंगार किया। प्राणनाथ श्रीकृष्ण के कुशस्थली चले जाने के बाद से श्रीराधा ने कभी श्रृंगार धारण नहीं किया था। इस दिन से पहले उन्होंने कभी पान नहीं खाया, मिष्ठान्न भोजन नहीं किया, शय्या पर नहीं सोयीं और कभी हास–परिहास नहीं किया था। इस समय सिंहासन पर विराजमान मदनमोहनदेव से श्रीराधा ने हर्ष के आंसू बहाते हुए गद्गदकण्ठ से पूछा । श्रीराधा बोलीं– हृषीकेश ! तुम तो साक्षात गोकुलेश्वर हो, फिर गोकुल और मथुरा छोड़कर कुशस्थली क्यों चले गए ? इसका कारण मुझे बताओ। नाथ ! तुम्हारे वियोग से मुझे एक–एक क्षण युग के समान जान पड़ता है। एक–एक घड़ी एक–एक मन्वन्तर के तुल्य प्रतीत होती है और एक दिन मेरे लिए दो परार्ध के समान व्यतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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